Tuesday, March 24, 2009

तू सही
मैं ग़लत ,
मैं सही
तू ग़लत ,
कब तक लड़े
यूँ ज़िंदगी से
चलो यूं ही
बेवजह जीने का
एक समझौता कर लेते हैं !!

by kuchh yu hi

1 comment:

  1. रायपुर से एक मित्र का फोन बार-बार आ रहा है, छत्तीसगढ़ घूम जाओ यार। दिल्ली की ज़हरीली हवा पीते-पीते थक गया हूं मैं खुद भी जाना चाहता हूं। बच्चे भी उन जानवरों को देखना चाहते हैं जो पत्रिकाओं में दिखते हैं या डिस्कवरी पर आते हैं। ये सचमुच होते हैं, अहसास कराने के लिये उनको एक बार छत्तीसगढ़ ले जाना ज़रुरी है। क्योंकि इस देश में वो ही एक प्रदेश बच रहा है जहां फिलहाल (कब तक बचेंगे कह नहीं सकते) जंगल बचे हैं और जंगली जानवर भी।
    लेकिन इस बहाने ये भी जान लेते हैं कि असलियत क्या है। एक पुरानी अखबारी कतरन पर नज़र पड़ी। कतरन सितंबर 2007 की है, जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के उदांती नेशनल पार्क में महज़ 7 वाइल्ड बफैलो बचे हैं। वाइल्ड बफैलो यानी जंगली भैंस या भैंसा। इन सात में से 6 नर और 1 मादा। इंद्रावती में एक आध और हो तो हो वरना बाकी छत्तीसगढ़ से तो इनका नामोनिशान मिट गया है। पामेद जो कभी इनका गढ़ था वो भी खाली हो चुका है। अब बात चली है तो डेढ़ साल बाद मुझे फिक्र हो रही है कि वो सात भी अब तक बचे होंगे या नहीं।
    मैं तो पैदा ही छत्तीसगढ़ में हुआ हूं, बाद में गया भले ही कम होऊं, वहां की कई यादें हैं अब तक। पिता जी के किस्से अब तक याद हैं जो वहां के जंगली जानवरों के बारे में अकसर सुनाया करते थे। किस्से आम तौर पर शेर हाथियों के सुनाये जाते हैं लेकिन मेरे पिता का साबका जंगली भैंसों से पड़ा, कई बार। एक बार तो जीप के सामने आकर खड़ी हो गई तो हटी ही नहीं। जीप पीछे लेकर वापस जंगल मे दौड़ाई तब जान बची। वो ही वाइल्ड बफैलो अब खत्म हो रहे हैं। भारत में असम और छत्तीसगढ़ के अलावा ये कहीं नहीं होते। वैसे मेघालय और महाराष्ट्र में भी इनके यदा-कदा देखे जाने की बात सामने आई है।
    जो आंकड़े मैं जुटा पाया हूं उनके हिसाब से अगस्त 2002 में छत्तीसगढ़ में 75 वाइल्ड बफैलो थे। 35 उदांती नेशनल पार्क में और 40 इंद्रावती नेशनल पार्क में। 2004-05 में इनकी संख्या घटकर 27 रह गई और उसके अगले साल यानी 2005-06 में महज़ 19। अब पता नहीं कोई बचा भी होगा या नहीं। और कोई प्रदेश होता तो मान सकते थे कि शायद एक-दो बचे हों लेकिन छत्तीसगढ़ का वन विभाग जितना काहिल है उससे लगता नहीं कि उन्होने इनको बचाने के लिये कुछ किया होगा।
    अफ्रीका में भी ये जानवर होता है, कैप बफैलो। एक से पौने दो मीटर लंबा और 5 से दस क्विंटल तक वजनी। शेर को भी मार डाले इतनी ताकत। अफ्रीका के जंगलों में पश्चिम के कई शिकारी कैप बफैलो के शिकार हो चुके हैं। लेकिन इंडियन वाइल्ड बफैलो शर्मीले होते हैं, झाड़ियों में छुपकर रहने वाले और घास से पेट भरने वाले। लेकिन जब गुस्सा आ जाये तो बाघ भी कहीं नहीं टिकता। छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के आदिवासी कहते हैं कि बाघ तो लड़ने के हुनर ही वाइल्ड बफैलो और जंगली सूअरों जैसे जानवरों से सीखता है। बाघ वो बाघ जिसको बचाने की होड़ में पूरा देश लगा है लेकिन वाइल्ड बफैलो खत्म हो रहे हैं कोई पूछने वाला नहीं। मैं तो मन ही मन ये सोच रहा हूं कि मुझसे पहले किसी ने शायद सोचा ही ना हो इस बारे में, वाइल्ड बफैलो के बारे में।
    बाघों के तो बड़े-बड़े जानकार हैं, तरह-तरह के हैट और टोपियां लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले, टीवी पर उनकी चिंता करने वाले, अखबारों के पन्ने रंगने वाले। हरेक की कोई ना कोई सोसायटी, ट्रस्ट या फाउंडेशन है, विदेशों से चंदा आता है और किसी ना किसी टाइगर रिज़र्व के बाहर अपना रिज़ॉर्ट बनाया हुआ है। बाघों से जुड़ी हर संस्था में सेटिंग है। दिल्ली से सैलानियों को ले जाते हैं, 15 हज़ार रोज़ के टैंट में रुकवाकर बाघ भी दिखवा देते हैं। लेकिन बाघ जिन जानवरों की वजह से ज़िंदा है उनकी चिंता नहीं किसी को। हिरण जैसे छोटे जानवर जो बाघ का प्रिय भोजन हैं, मरते हैं मरते रहें। जब बाघ का भोजन ही नहीं बचेगा तो बाघ कैसे बचेगा मेरे भाई, बाघ विशेषज्ञो, वन्य जीव विशेषज्ञों मोटी सी बात है समझ लो। हिरण को बचा लो, वाइल्ड बफैलो को बचा लो, बाघ भी बच जायेगा।
    (लेखक पेशे से पत्रकार-वत्रकार हैं। लेकिन वाइल्ड बफैलो की चिंता में इस लेख को लिखने के बाद अपने आपको वन्य जीव विशेषज्ञ कहलवाना चाहते हैं)

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